Gautama Buddha – गौतम बुद्ध धर्म, बुद्ध जीवन, विरक्ति, गृहत्याग और ज्ञान की प्राप्ति

गौतम बुद्ध का जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर हुआ था। गौतम बुद्ध की माँ का नाम महामाया था। और वे कोलीय वंश की थीं,और गौतम बुद्ध (Gautama Buddha) के जन्म के सात दिन बाद उनका निधन हुआ था, गौतम बुद्ध का पालन पोषण महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया था।

29 वर्ष की आयुु में सिद्धार्थ के विवाह हुए और एक नवजात शिशु राहुल का जन्म हुवा उसके बाद सिद्धार्थ अपनी धर्मपत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को छोड़ के चले गए जंगल में इस संसार की आधी, व्याधि, जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने एवं सत्य की खोज में राजपाठ का मोह त्यागकर जंगल की ओर चले गए।

वर्षों की कई तरह की कठोर साधना के पश्चात (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गए। गौतम बुद्ध का जन्म १८८७ मे तथा निर्वाण १८०७ ईपू मे हुआ था।

Gautama Buddha jivan

धर्म बौद्ध धर्म (सनातन धर्म जन्म से)
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ
जन्म ईसवी पूर्व 563
लुंबिनी, नेपाल
निधन ईसवी पूर्व 483 (आयु 80 वर्ष)
कुशीनगर, भारत
जीवनसाथी राजकुमारी यशोधरा
बच्चे राहुल
पिता शुद्धोधन
माता मायादेवी

गौतम बुद्ध का जीवन परिचय, बौद्ध धर्म का इतिहास

गौतम बुद्ध जीवन | Gautama Buddha

उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व हुआ था, कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने सिद्धार्थ बालक को जन्म दिया। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। शुद्धोधन क्षत्रिय राजा उनके पिता थे। कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था।

उनका पालन पोषण उनकी मौसी रानी गौतमी ने किया। सिद्धार्थ का अर्थ है “जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो”। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक एक महान संत बनेगा।

शुद्दोधन राजा ने पांचवें दिन नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। और सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र संत बनेगा।

और इसका कारण भी बताया की जिस दिन सिद्धार्थ इस संसार में दुःख दिखेंगे उसी टाइम से ये संसार को छोड़ देगा अगर इस संसार में सिर्फ सुख ही सुख है ऐसा लगेगा तभी वो इस संसार में टिक पाएंगे और इस राज्य के वो राजा भी बनेगे। और तुरंत ऐसा सुनते ही शुद्दोधन राजा ने अपने नगर के आसपास जितने भी ग़रीब बीमार बूढ़े महिलाये पुरुष और जो कुरूप दीखते थे उन्हें नगर के एक कोने में बंद कर दिया था।

सिद्धार्थ का मन बचपन से ही करुणा प्रेम और दया का सागर था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। सिद्धार्थ हरेक जिव प्राणी के प्रति समभाव रखते थे। वो किसी भी समाज के या वर्ग का इंसान हो वो सभी को एक ही दृस्टि से देखते थे।

जब खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना सिद्धार्थ से नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ के चचेरे भाई देवदत्त ने तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों भी बचाये थे सिद्धार्थ जब भी तीर से निशान लगाते तो किसी पक्षी को नहीं बल्की अपने गले में पहने छोटे से मोती के मनके को हवा में उशाल के तीर को आरपार करते थे।

सिद्धार्थ ने युद्ध करने से भी मना कर दिया था और सभी से कहते की युद्ध से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। युद्ध से हमेशा एक दूसरे का नुकशान ही होता है। और सभी का न मानते हुए संसार छोड़ने को कहा तो वो खुसी खुसी स्वीकार कर लिया।

शिक्षा एवं विवाह | Gautama Buddha

सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ को पढ़ा और इसके आलावा राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। इसके आलावा कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान चलने में और रथ हाँकने में भी सिद्धार्थ की बराबरी कोई नहीं कर पाता। सोलह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का यशोधरा के साथ विवाह हुआ।

पिता द्वारा बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे और कुछ समय बीतने के बाद उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। लेकिन विवाह के बाद उनका मन वैराग्य में चला गया और सम्यक अखंड सुख-शांति के लिए उन्होंने अपने महल परिवार अपने पिता और पुत्र का भी त्याग कर दिया।

विरक्ति

राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध किया हुवा था। तीन ऋतुओं के अनुसार तीन बड़े सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री उपलब्ध थी। दास-दासी उसकी सेवा में हाजिर रहती थी। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं।

वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर गुमने निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी देखा। उसके दाँत टूट गए थे, बाल सफेद हो गए थे, शरीर टेढ़ा और काला हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार जब कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया।

उसकी साँस तेजी से चल रही थी। और पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। और दूसरे के सहारे बड़ी मुश्किल से चल रहा था। और ये देखके सिद्धार्थ को बहोत ही मन ही मन दुःख होने लगा। और सोचने लगे की संसार में सभी इंसान का यही हाल होता होगा।

तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। और सिद्धार्थ ने देखा की चार आदमी उसे उठाकर ले जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था तो कोई छाती पीट रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित कर दिया। और कुछ पल वही पे रुक गए, उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है इस जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है।

धिक्कार है इस स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है इस जीवन को, जो इतनी जल्दी बुढ़ापा, बीमारी और मौत होती है। और तभी सिद्धार्थ को अहसास हुवा की इस संसार में दुःख ही है। जो इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है उसे एक दिन मरना ही है। और मरना ही है तो फिर इस संसार में व्यर्थ का टाइम बर्बाद क्यों करे।

चौथी बार कुमार जब गुमने के लिए निकले तो सिद्धार्थ को एक संन्यासी दिखाई पड़ा। और संन्यासी के पास न कुछ पहने के लिए था न रहने के लिए घर नहीं खाने के लिए कुछ था।

यहाँ वह भिक्षा में जो मिले उसी में संतुस्ट रहते। और न कोई दुःख सिर्फ सन्ति ही दिखाई दी। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को प्रसन किया। और सिद्धार्थ के मनमे संन्यासी बनने के विचार आने लगे।

महाभिनिष्क्रमण (गृहत्याग)

सुंदर पत्नी यशोधरा, राहुल और राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। सिद्धार्थ के साथ अपना दोस्त और घोड़े को रस्ते से वापस लौटने को कहा और वहा से अकेले ही चले गए। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे।

वहा से सिद्धार्थ ने योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर सिद्धार्थ को उतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाए उसे संतोष नहीं हुआ। और वह से सिद्धार्थ उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे। जिसने जैसा कहा वैसे करते गए किसी ने बोला की दिन की एक रोटी खानी है तो वो भी किया कुछ दिन तो खाना ही छोड़ दिया था।और सिद्धार्थ का पूरा शरीर की हड्डिया दिखने लगी।

ऐसे करके पूरा शरीर सुख गया ऐसे 6 साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। एक दिन कुछ स्त्रियाँ नगर लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ पर सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। और उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा, ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ो।

ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ फिर क्या था ये बात सिद्धार्थ को समाज में आ गई। वह मान गये कि भूखा रहने से कुछ नहीं होगा।

नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होगा। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है न ज्यादा सोये न ज्यादा खाये न ज्यादा बोले जो भी करे सम्यक ही करे सिद्धार्थ ने अपने सरे नियम बदल दिए और प्रकृति के साथ तालमेल करने लगे सबकुछ ढीला छोड़ दिया। और निरंतर तपस्या करने लगे।

ज्ञान की प्राप्ति | Gautama Buddha

ज्ञान की प्राप्ति में बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे, जिनसे उन्होंने संन्यास काल में शिक्षा प्राप्त की। ३५ वर्ष की आयु में वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। और वह पे अपनी योग सकती तप से कुछ ऊंचाइया प्राप्त की, फिर बुध वह से चले गए।

और बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की वहा पे सुजाता नामक लड़की के हाथों की खीर खाकर बुद्ध ने उपवास तोड़ा। और ये देखकर और साधु ने बुद्ध का बहिस्कार किया और बोलने लगे की बुद्ध तो बदल गया है। और हमें बुद्ध का साथ छोड़ देना चाहिए। ऐसा बोलके साधु वहा से दूर चले गए।

समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुवा था। वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मन्नत पूरी करने के लिए सोने के थाल में खीर लेके पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ ध्यान कर रहे थे। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई है, उसी तरह आपकी भी मनोकामना पूरी हो।

और उसके बाद सिद्धार्थ ने वो खीर खायी और सुजाता सिद्धार्थ के लिए हररोज खीर लेके आती और सिद्धार्थ को जो भी अनुभव होते वो सुजाता को सुनाते और एक दिन आया की सिद्धार्थ को ध्यान लगा और साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। और तभी से सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ कहलाए।

Gautama Buddha

जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुवा वह बोधिवृक्ष कहलाया। और वहा से गौतम बुद्ध धर्म की स्थापना के लिए लोक कल्याण हेतु वहा से निकल गए। और जो साधक और थे उनके पास पहुंचे और कहा की मुझे बुद्धत्व प्राप्त हो गया है। मै नया संग का निर्माण कर रहा हु आप मेरे संग में जुड़ सकते हो और वहा से बुद्ध धर्म की शुरुआत हुई।

गौतम बुद्ध धर्म

गौतम बुद्ध 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का सीधी और सरल लोकभाषा में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी चारो तरफ दूर दूर बढ़ने लगी। महाप्रजापती गौतमी को सर्वप्रथम बौद्ध संघ मे प्रवेश मिला। गौतम बुद्ध के सभी सीस्यो में से आनंद, बुद्ध का प्रिय शिष्य था। बुद्ध आनंद को ही संबोधित करके अपने उपदेश देते थे।

और आनंद अपने गुरु की रात दिन सेवा करता। गौतम बुद्ध के संग में महिलाये भी साधिका थी और उनके लिए अलग आश्रम में रहना और उनके नियम भी बनाये गए थे।

Gautama Buddha को कोई कुछ भी कहता कितना भी कठोर बोले फिर भी गौतम बुद्ध सभी पर सैम दृस्टि रखते और संसार में अंधकार को मिटा के ज्ञान का दीपक जलाया है और आज भी ज्ञान जन जन में बाट रहा है। जो मानवता के लिए अंधकार को मिटा के ज्ञान का उदय होता है।

महापरिनिर्वाण

८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन कुन्डा नामक एक लोहार से प्राप्त किया था, वो भोजन खुद ही ग्रहण किया और अपने सभी भिक्षु को खाने से रोका था।

वो भोजन खुद अकेले ही ग्रहण किया जिसके कारण वे बुरी तरा ससे बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। और बुद्ध ने आनंद को सभी भिक्षुओं को इक्कठा करने को कहा फिर सभी भिक्षुओं से कहा की मेरा महापरिनिर्वाण का टाइम आ गया है।

भगवान बुद्ध ने ‘बहुजनों के हिताय’ जनकल्याण के लिए देश-विदेश में अपनी शिक्षाओं का प्रसार करने के लिए इधर-उधर से भिक्षुओं को भेजा। अशोक जैसे सम्राटों ने अन्य देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मौर्य की उम्र में, बौद्ध धर्म पूरे भारत में चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, भारत-चीन, श्रीलंका और अन्य देशों में फैल गया था। बौद्ध धर्म इन देशों में प्रमुख धर्म है।

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